فكرت بأن أكتب شعراً | |
لا يهدر وقت الرقباء | |
لا يتعب قلب الخلفاء | |
لا تخشى من أن تنشره | |
كل وكالات الأنباء | |
ويكون بلا أدنى خوف | |
في حوزة كل القراء | |
هيأت لذلك أقلامي | |
ووضعت الأوراق أمامي | |
وحشدت جميع الآراء | |
ثم.. بكل رباطة جأش | |
أودعت الصفحة إمضائي | |
وتركت الصفحة بيضاء! | |
راجعت النص بإمعان | |
فبدت لي عدة أخطاء | |
قمت بحك بياض الصفحة.. | |
واستغنيت عن الإمضاء! |